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Friday, December 1, 1995

मन से दुःख, आत्मा से खुशी
सुख और दुःख जीवन के दो बड़े पहलू
उनसे जुड़े कार्य
और उससे जुड़े मन और आत्मा |

मेरे अंदर   बसी मेरी आत्मा
जो संसार के सारे सुख व खुशी
प्राप्त करना चाहती है
और दूसरों को उसमें शामिल कर,
सुख देना चाहती है
वो यह नहीं समझ पा रही
की उसके लिए दुःख भी आवश्यक है |
और खुशी ना मिलने का रहस्य
सीधा व सरल है -
मेरे मन की चाहत |
मन, दिन-प्रति-दिन
मुझे मोह-माया में लपेटता  जा रहा है
उस से निकलना कठिन है
और दुःख ज़यादा |
आत्मा अमर है
और व्यक्ति को सही कार्य करने को कहती है
पर में मूर्ख, उसकी ना सुन
मन की ही करती हूँ |
मन जो कहे, वो करना तो सरल है
परन्तु उसका परिणाम
जितना सरल, उतना ही खराब |
फिर अपनी गलतियों का अहसास होने पर
अपने आप को कोसने से क्या फायदा?
समय तो बीत चुका है
और अपनी गलती पर
दूसरों पर आरोप लगाना
भी तो गलत है  |
आत्मा की सुनना कठिन है
और कभी तो असम्भव |
पर क्या असम्भव को सम्भव
नहीं किया जा सकता?
प्रयत्तन तो यही है
पर कार्य मन के ही होते हैं |